यत् पिण्डे तत् ब्रह्मांड (श्राद्ध मीमांस) परमात्मा की सृश्टि में अनेक लोक है। देवलोक ब्रह्मलोक, गोलोक आदि इनमें एक पितृलोक भी है जिसका प्रभाव
‘‘दक्षिणा प्रवणो र्वे पितृलोकः‘‘ कर्मणा पितृलोकः‘‘ ‘‘मासेभ्यः पितृलरेक दाकाषय् पितृलोक
अपने में एक स्वतंत्र लोक है जो दक्षिण दिषा में भूलोक के उपर चंद्र मंण्डल के अंर्तगत व आसपास है। प्रत्येक शरीर में आत्मा है तथा वह तीन रूप में पाई जाती है। 1.विज्ञान आत्म 2-महान आत्मा 3- मृत आत्मा। आष्विनि कृश्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक उपर की ओर रषिम तथा रषिम के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। यही श्राद्ध की मूलभूत धारण है कि प्रेत पितर के निमित उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धा पूर्वक जो अर्पित किया जाय वह श्राद्ध है। मृत्यु के पष्चात दषमात्र और शोडषी ने सपिण्डन तक मृतक व्यक्ति को प्रेत संबा रहती है। तथा सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाती है तथा पितृ पक्ष में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यामित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो पद तथा चावल का पिण्ड देता है उसमें रेतस का अंष लेकर चंद्रलोक में अपमृप्राण का दिन चुका देता है।
श्राद्ध मुख्य दो प्रकार के होते है।
एकोदिश्ट तथा परर्वण ।
कालांतर में चार प्रकार के श्राद्ध के प्रमुुख्यता है।
1- पार्वण 2- एकोदिश्ट 3- वृद्धि 4- सपिण्डन।
हमारे धर्मषास्त्रों में श्राद्ध के संबंध में इतने विस्तार से अध्यन किया है कि समस्त धार्मिक कृत्य गौण लगते है। आजकल आधुनिक षिक्षा प्राप्त कुछ ब्रह्माण यह भी कहते हैं कि पितृपक्ष में पितृ के लिये खाद्यान्न तथा नगद रूपये किसी ऐसे अनाथालय आदि में दे ने से भी वही फल प्राप्त होता है। ऐसा सर्वथा शास्त्र विरूद्ध है। यह एक पुण्य कार्य है जो कभी भी करे। किंतु श्राद्ध में पितृं के निमित केवल ब्रह्माण को ही भोजन करवाना तथा दक्षिणा आदि देना शास्त्र सम्मत है।
कालांतर में चार प्रकार के श्राद्ध के प्रमुुख्यता है।
1- पार्वण 2- एकोदिश्ट 3- वृद्धि 4- सपिण्डन।
हमारे धर्मषास्त्रों में श्राद्ध के संबंध में इतने विस्तार से अध्यन किया है कि समस्त धार्मिक कृत्य गौण लगते है। आजकल आधुनिक षिक्षा प्राप्त कुछ ब्रह्माण यह भी कहते हैं कि पितृपक्ष में पितृ के लिये खाद्यान्न तथा नगद रूपये किसी ऐसे अनाथालय आदि में दे ने से भी वही फल प्राप्त होता है। ऐसा सर्वथा शास्त्र विरूद्ध है। यह एक पुण्य कार्य है जो कभी भी करे। किंतु श्राद्ध में पितृं के निमित केवल ब्रह्माण को ही भोजन करवाना तथा दक्षिणा आदि देना शास्त्र सम्मत है।
‘‘ देषे काले च पात्रे च श्रद्धा या विधिना च येत् पितृनुदिष्य यर्वाद्भ्वच यया च श्राद्धकारिणा‘‘
- ब्रह्म पुराण अनुसार देश काले पात्र को देखकर श्राद्ध एवं विधि के अनुसार पितरो के निमित जो कुछ ब्रह्माणों को दिया जाये वही श्राद्ध है। कैसी भी परिस्थिति हो श्राद्ध अवष्य करना चाहिये। इसका व्यापन न करे यदि किसी प्रकार वेदपाठी विप्र न मिले तो सदाचारी ब्रह्माण (केवल जन्म से ब्रह्माण हो) को पंक्ति मे सिरे पर वेदपाठी ब्रह्माण को बैठा दें वह अन्य ब्रह्माण को पवित्र एवं श्राद्ध का अधिकारी बना देता है। यदि ब्रह्माण न मिले हो कुषा की मनुश्याकार आकृति बनाकर उसे ब्रह्माण मानकर अनुश्ठान करे (स्कंद पुराण) यदि कुश न भी मिले तो श्राद्ध द्रव्य अग्नि को भेंट करे या गाय को खिला दें। या जल में छोड दें । महर्शि देवल के अनुसार-:
सर्वभवे क्षिपेद्रगौ गवे दद्यादथाप्सु वा। नैत्र प्राप्तस्ये यो पोडस्ति पैतृकस्य विषेशतः
यदि कोई अंत्यंत निर्धन है व श्राद्ध के लिये अन्न नहीं है तो आश्रृलायन गृहंसूत्राकारानुसार् श्राद्ध के दिन ऐसे व्यक्ति किसी बैल को घास खिला दे अग्नि में सूखा तृण डाल दे और पितृओं को नमस्कार करे और अगर इतना भी न कर सके तो
वृहन्नारदीय पुराणानुसार अथवा रोहानं कुयदि न्युष्चैविजिने वने दरिद्रोऽहं महापापी वदोदति विचक्षिणः।। वह निर्जन वन में जाय और जोर जोर से यह करे कि मैं पापी हू दरिद्री हूँ जो श्राद्ध नहीं कर सकता । वाराहपुराणानुसार वह व्यक्ति वन में जा कर दोनों भुजा उठाकर सूर्य आदि लोकपाल को अपनी बगल की मूल दिखाकर ऊँचे स्वर में कहे कि मेरे पास धन नहीं है एवं श्राद्ध उपयोगी कोई पदार्थ भी नहीं है अतः मैं अपने पितृओं को प्रणाम कर रहा हूँ आप मेरी भक्ति से तृप्त हो। घर में किये गये श्राद्ध का पुण्य फल तीर्थ के किये गये श्राद्ध से आठ गुना होता हैं
‘‘ तीर्थादिश्टगुणां पुण्यं स्वगृहे ददतः शुभे।‘‘
‘‘ तीर्थादिश्टगुणां पुण्यं स्वगृहे ददतः शुभे।‘‘
अंत मैं यही कहूँगा की किसी भी देश काल परिस्थ्तियो में श्राद्ध का लोप नहीं करना चाहिए। धनवान ,निर्धन सभी के लिये षास्त्र ने मार्ग सुझाया हैं जो व्यक्ति अपने मातृ पितरौं के लिये पितृ पक्ष में उन्हें नमस्कार न कर सके , उन्हे बुद्धि विनायक सद्बुद्धि दें।
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